परिचय (कमला दास की कविता)

Woman-Inner Mind, a painting by Kamla Das

अनुवाद- राजेश झा

मैं राजनीति नहीं जानती लेकिन
गद्दी पर बैठे लोगों के नाम जानती हूँ।
नेहरू से शुरू कर दुहरा सकती हूँ उनका नाम,
जैसे सप्ताह में दिनों के नाम या महीनों के।
हिंदुस्तानी हूँ मैं,
भूरा रंग, मालाबार में जन्मी, तीन भाषाएँ बोलती हूँ मैं,
दो भाषाएँ लिखना जानती हूँ,
एक में सपने देख सकती हूँ।

उन्होंने हिदायत दी अंग्रेज़ी में मत लिखो
यह नहीं है तुम्हारी मातृभाषा।
आलोचक, दोस्त, चचेरे मौसेरे भाई -बहन,
अकेला नहीं छोड़ते मुझे।
मैं क्यों नहीं बोल सकती अपनी पसंद की ज़ुबान?
मैं बोलती हूँ जो भी भाषा, बन जाती है वो मेरी अपनी-
इसकी विकृतियाँ और विचित्रताएँ मेरी हैं, सिर्फ़ मेरी।

मेरी ज़ुबान है आधी अंग्रेज़ी, थोड़ी सी हिन्दुस्तानी,
थोड़ी सी अजीब लेकिन ईमानदार है यह और इंसानी,
जैसे मैं हूँ इंसान-
दिखाई नहीं देता तुम्हें?
इसमें छलकती है मेरी ख़ुशियाँ, मेरी हसरतें और उम्मीद,
यह मेरे लिए उपयोगी है-जैसे कौए के लिए उसका कांव कांव,
शेर के लिये उसकी दहाड़।

तूफान या मॉनसून के बादलों के बीच खड़े पेड़ों की अंधी-गूंगी आवाज़ नहीं है यह,
और न ही धधकती चिता की अबूझ बड़बड़ाहट,
ये मनुष्य की आवाज़ है, मस्तिष्क का स्वर, जो यहां है, वहां नहीं,
सजग मस्तिष्क जो सुनता,देखता और समझता है।

मैं तब बच्ची थी, बाद में बताया कि मैं बड़ी हो गयी,
क्योंकि उभड़ गए थे मेरे अंग, उग आए थे बाल इधर उधर।
मैंने मांगा था प्यार, क्योंकि मुझे पता नहीं था कि मांगू क्या
सोलह साल की लड़की को खींच लिया कमरे के अंदर,
बंद कर दिए दरवाज़े,
मारा नहीं था उसने,
लेकिन मेरा उदास स्त्री शरीर महसूस कर रहा था पिटा पिटा।
छातियों और कोख के बोझ से दब गयी मैं,
दयनीय हो गयी, सिकुड़ गयी।
फिर मैंने पहन ली भाई की कमीज और पतलून,
छोटे कर लिए बाल, अपने औरतपने को कर दिया दरकिनार।

उन्होंने समझाया- साड़ी पहनो, लड़की बनो, बीबी बनो,
सीखो कसीदा, रसोई करो, नौकरों को लगाओ डांट-फटकार,
सबसे मिल जुल कर रहो, अपने किरदार में रहो।
समूहों में बांटने वालों ने कहा,
ओह, मत बैठो दीवारों पर, झांको नहीं खिड़कियों के परदों से घर के अंदर।
एमी बनो या कमला,
उससे भी अच्छा कि बनो माधवीकुट्टी।
वक्त आ गया है कि चुन लो कोई नाम, अपना किरदार,
बहाने बनाना बंद करो,
बंद करो पागल दिखने की कोशिश, चुड़ैल मत बनो,
प्यार में धोखा खाकर इतना न रोओ जार बेजार कि सहम जाएं लोग।

मैं मिली एक मर्द से, प्यार किया मैंने।
नाम न दो उसे,
वह है बस एक मर्द जो पाना चाहता है औरत को
ठीक मेरी तरह एक औरत जो ढूंढती है प्यार।
उसमें है नदियों की भूखी बेताबी,
मुझमें है समंदर का अनंत इंतजार।

हर किसी से पूछती हूं मैं कि कौन हो तुम?
जवाब मिलता है- मैं ही हूं।
इस दुनिया में यहां, वहां, हर कहीं उसे ही देखती हूं,
कसमसाकर म्यान के भीतर बंद तलवार की तरह जो कहता है- मैं हूं।
मैं ही तो हूं जो अजीब शहरों के होटलों में पीती है शऱाब,
अकेले बारह बजे, हर रात।
मैं ही तो हूं जो हंसती है, करती है संभोग, महसूस करती है शर्म।
मैं ही तो हूं जो मरते हुए भी बोलती है झूठ, मेरे गले में बजते हैं झुनझुने,
पापी हूं मै, संत भी हूं।
मैं हूं प्रेयसी, मैंने ही खाया है धोखा।
मेरी हर खुशी है तुम्हारी भी,
मेरा हर दर्द भी है तुम्हारा
मैं भी खुद को कहती हूं मैं।

Introduction- Poem by Kamla Das-English Text

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