सेसलॉ मिलोज (१९११-२००४)। महान पोलिश कवि। १९६० से अमेरिका में निर्वासित जीवन व्यतीत करते हुए बर्कले विश्वविद्यालय में पोलिश भाषा का अध्यापन। १९८० में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित। मिलोज की कविताओं में मानवीय स्वतंत्रता और आत्मिक तथा बाह्य दोनों प्रकार के निर्वासन की पीड़ा के गहरे स्वर सुनाई देते हैं।
1. कयामत के दिन भी
अनुवाद- राजेश कुमार झा
कयामत के दिन भी जरूर,
भौंरे मंडराएंगे फूलों पर,
मछुआरे सहेजेंगे मोतियों से झिलमिलाता जीर्णशीर्ण जाल,
सूंस लेंगे अटखेलियां समंदर की छाती पर,
बारिश की बूंदों पर इतराएंगे गोरैया के बच्चे
और बरकरार रहेगी सांपों की सुनहली चमक-हमेशा की तरह।
कयामत के दिन भी जरूर,
निकलेंगी औरतें खेतों में काम पर,
मदमस्त हो निढाल होगा शराबी बाग के कोने पर,
सब्जी वाला लगाएगा आवाज गलियों में,
डालेगी लंगर मटमैली पालों वाली नाव नदी के तट पर,
सारंगी की आवाज गूंजेगी अल-सुबह, सांझ ढलने तक।
होंगे निराश वो भी जिन्हें थी प्रतीक्षा प्रलय की,
तूफान और बिजलियों की कौंध की।
और जो थे पलकें बिछाए-
दैवी संकेतों और परियों के आगमन के लिए,
होंगे निराश, वो भी।
जब तलक आसमान में चमकता है चांद,
और बिखेरता है रोशनी सूरज,
भौंरे फूलों पर होते हैं गुंजार,
लाल लाल गालों वाले शिशु किलकते हैं इस धरा पर,
नहीं आएगी कयामत, नहीं आएगी कयामत।
झक सफेद बालों वाला-
अपनी फसलों को समेटता बड़बड़ा रहा है-
नहीं आएगी कयामत, नहीं होगा प्रलय अब दुबारा।
शायद वो फरिश्ता है कोई।
See: Song on the End of the World- Ceslow Milosz (English)
2. लोक–परलोक
अनुवाद- राजेश कुमार झा
मृत्यु के बाद,
देखूंगा इस ब्रह्मांड की अंतः शिराओं को,
पक्षियों के कलरव, पर्वत श्रृंखलाओं और ढलते सूरज के पार
होंगे उद्घाटित अर्थ-
सत्य होगा प्रकट।
खुलेंगे अनबूझ पहेलियों के रहस्य,
मृत्यु के बाद।
पर अगर शून्य हों अंतः शिराएं-
पेड़ की टहनी पर बैठा नीलकंठ, हो केवल एक पक्षी-
शगुन-अपशगुन से दूर।
दिन के बाद रात और रात के बाद दिन-
आएं जाएं, आएं जाएं, बस यूं ही, निरर्थक।
इस धरती पर न हो कुछ भी, इस धरती के सिवा।
चाहे जो भी हो इस धरती का सच,
रहेंगे शब्द-
और उन्हें गुनगुनाने वाले ये नश्वर होठ।
रहेगा हरकारा-
आकाश-गंगाओं, मंदाकिनियों में निरंतर विचरता,
अथक,
पुकारता, चीखता, अलख जगाता।
-सिसलो मिलोज, बर्कले, १९८८
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