औरत/ नदी (उज्वला सामर्थ)

 

(अनुवाद: राजेश कुमार झा)

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Gustav Klimt ‘The Kiss,’ located in the Österreichische Galerie Belvedere, Vienna.

औरत हूँ मैं और इसीलिए नदी भी।
बहती आई हूँ सदियों से, ढोती पीढ़ियों की गाद।
झेली है मैंने टूटी उम्मीदों की बेशर्म चुभन,
अचानक बेघर होने का दर्द,
थके मांदे लोगों का बुझा बुझा आक्रोश।

लोरियां गाकर सुलाया है मैंने अपराधी अस्थि-पंजरों को,
मगर साथ ही जानती हूँ मैं संभालना-
असहमति की कुमुदिनी,
चुप्पियों के इस युग में।

औरत हूँ मैं और इसीलिए नदी भी।
पहुँचाई है मैंने ठंढक जलते कदमों को,
धोया है घावों को,
पिया है घूंट खून का, चखा है गहन अंधकार,
धूम धड़ाकों से भरपूर क्रांतियों के फरेब का,
भूख के नगाड़ों की आवाज दबाने के लिए थोपी लड़ाइयों का।

निकले जब तुम अपने विजय अभियान पर,
मैंने कंधा लगाया है तुम्हारी नावों को।
तुम्हारी थकी टांगों को सहलाया है मैंने अपने बालों से,
वापस लौटे जब तुम अपनी छोटी-बड़ी जीतों से।

औरत हूँ मैं और इसीलिए नदी भी।
आखिर औरत होती है क्या?  और नदी क्या होती है?
मैं हूँ पत्ती, पत्थर, जड़, हवा।
धरती के गाल पर तनी तीर की प्रत्यंचा हूँ मैं।

दुनिया की अंतरात्मा की स्याह, गहरी सचाई हूँ मैं।
कभी मैंने निहाल किया था तुम्हें अपनी समझ से,
लेकिन तुम डूबे थे, अपनी नींद की आगोश में।
हाँ, मैं औरत हूँ और रहूँगी नदी, हमेशा हमेशा,
पर याद रखना, जैसे बदल सकती है औरत अपना रास्ता,
नदी भी मोड़ सकती है अपना मुँह दुनिया से।

II

 मैं औरत हूँ और नदी भी।
कालातीत, शास्वत, भरोसेमंद होते होते ऊब चुकी हूँ मैं!
डूब जाना चाहती हूँ इस पल में,
जोड़ लेना चाहती हूँ अपनी डोर चाँद से।

सुखा लेना चाहती हूँ खुद को, ईर्ष्या की आग में,
अट्टहास करना चाहती हूँ, तुम्हारे मुँह पर,
अपने उस दूसरे चेहरे से, जो बनी है
सूखी लकड़ियों और बदरंग हड्डियों से,
नदी की उबड़ खाबड़ सतह और चिकने हो चुके पत्थरों से।

इंद्रधनुषी सतरंगे सपने देखना चाहती हूँ,
विलाप करना चाहती हूँ बारिश के निलहे संताप में डूब कर!
आखिर कब तक, कब तक कोशिश करती रहूँगी मैं,
नदी के किनारों को काटने की, पानी की कोमल धारा से।
लौटना चाहती हूँ मैं दुनिया में हहराती धारा बनकर।

III

मैं औरत हूँ और नदी भी।
कभी जलाते हो दीए मेरे कदमों में,
फिर थूकते हो मुझ पर, धक्के मारकर बढ़ जाते हो आगे।
तुम्हारे पवित्र चढ़ावे हो चुके हैं बासी, आती है सड़ांध उनसे।

पूजा के कीचड़ ने गंदला कर दिया है मेरे पानी को,
बस सिसकियों में घुटघुट कर बुदबुदाती हूँ मैं।
क्या कर लोगे मेरा तुम,
अगर खुरच डालूं अपनी गाद,
निकाल फेकूँ उन बेजुबानों को, आँखें नहीं हैं जिनकी,
उखाड़ फेकूँ जहरीली बेलों को, जो मथती रहती हैं मेरे पेट को।

छुपा रखा है मैंने इन सबको तुम्हारी नज़रों से,
क्योंकि मैं नदी हूँ और गहरी भी,
क्योंकि मैं औरत हूँ और साथ देती हूँ बेबसों का।
सूखी पत्तियों से भर देते हो तुम मुझे।
शोक अवरुद्ध कर देता है मुझे।
कौन देगा सांत्वना, सांत्वना देने वाले को?
रुदाली गाना चाहती हूँ मैं, जो शोक संतप्त कर डाले दुनिया को।

IV

औरत हूँ मैं, जिंदगी की इनायतों से सराबोर।
समंदर की ज्वार के साथ उफनती हूँ मैं,
कहो कैसे बचोगे मुझे देखने से?
मेरी भौंहों पर हैं निशान जिंदगी के।

तीसरी आँख है ये मेरी,
अंधा नही कर सकते इसे तुम- ज़ोर जबर्दस्ती, फरेब या प्यार से।
महिमामंडित की जाऊँ या फिर घिरूँ आतंक के साए में,
जन्म दूँगी मैं,
क्योंकि, जब जन्म देती है औरत
तो कहाँ पता होता है उसे बच्चे का भविष्य।
अब मेरा वक्त करीब आ रहा है।

कौन देगा मुझे चटाई लेटने को ?
कौन ढीले करेगा मेरे बंधन और ठंढक पहुँचाएगा मेरी आँखों को ?
कौन बनेगा मेरी बहादुर दाई?
गवाह कौन बनेगा मेरे पुनर्जन्म का ?
और कौन पिरोएगा मेरी प्रसव-पीड़ो को, धरती के प्रथम गान में ?

  V

 औरत हूँ मैं और इसीलिए नदी भी
जब नदियाँ बोलती है तो धरती सुनती है-
घासों की फुसफुसाहट चुप हो जाती है।
पत्तियों की सरसराहट थम जाती है।
पर्वत थाम लेते हैं अपनी साँसें।
नदियाँ जब बोलती हैं, सुनो।
किसे पता वह आवाज़ कैसी होगी?

(12 मार्च 2015)

See- Women/River – Ujwala Samarth (English)

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