
अनुवाद- राजेश कुमार झा
कविता परिचय- मार्गरेट एटवुड-प्रसिद्ध उपन्यासकार, कथाकार, कवि और लेखक। जन्म-1939, कनाडा। यह कविता अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति वाली सरकारों द्वारा जनता पर किए जा रहे दमन और प्रताड़ना के खिलाफ लिखी गयी है। सन 1980 में अमरीकी कवि कैरोलीन फोर्श ने एक कांफ्रेंस के दौरान मार्गरेट एटवुड को मध्य अमरीकी देश एल-साल्वाडोर में चल रहे दमन-चक्र के बारे में बताया। एटवुड ने उसी साल यह कविता लिखी।
कानूनी और गैर-कानूनी दोनों तरीकों से लोगों पर किए जाने वाले अत्याचार, अभिव्यक्ति के खतरे और समाज के अंदर कवि और कविता के स्थान के बारे में यह कविता एक गहरी अंतर्दृष्टि देता है।
दुनिया भर में हो रहे मानवाधिकार हनन को केंद्र में रखकर लिखी गयी इस कविता की सम-सामयिकता आज भी वैसी ही दिखाई देती है जितनी की चालीस साल पहले।
(I)
यही है वो जगह,
जिसके बारे मेंं नहीं जानना ही आप बेहतर समझेंगे,
यही है वो जगह,
जो बना लेगा आपको अपना बसेरा,
यही है वो जगह
जिसकी कल्पना नहीं कर सकते आप,
यही है वो जगह,
जो आखिर कर देगा आपको पराजित,
जहां ‘क्यों’ सिकुड़कर खाली कर देता है खुद को ,
अकाल है यह।
(II)
आप इसके बारे में कोई कविता नहीं लिख सकते-
बलुआहे गड्ढे जिनमें दफन किए गए
और फिर ढूंढ लिए गए,
न जाने कितने लोग,
जिनकी चमड़ियों पर अब भी लिखा था,
असहनीय दर्द।
ये पिछले साल नहीं हुआ था,
चालीस साल नहीं गुजरे इस घटना को,
ये बात पिछले हफ्ते की है।
ये होता रहा है,
ऐसा होता है।
हम उनके लिए बनाते हैं विशेषणों की माला,
गिनते हैं उन्हें तस्बीह के दानों की तरह,
बदल देते हैं उन्हें आंकड़ों और कहानियों में,
और इसी तरह की किसी कविता में ,
कुछ भी नहीं बदलता,
वे बने रहते हैं वैसे के वैसे।
(III)
लगातार जल रही रोशनी के बीच,
सीमेंट की गीली फर्श पर लेटी है औरत,
दिमाग़ को सुन्न करने के लिए बने हैं,
हाथों पर सुइयों के निशान,
वो सोचती है- क्यों मर रही हूं मैं?
वह मर रही है क्योंकि उसने बोला।
वह शब्दों की वजह से मर रही है।
निःशब्द, उंगलियां कटी हुई,
यह उसी का है शरीर,
वो लिख रही है यह कविता।
(IV)
देख कर लगता है शायद हो रहा है ऑपरेशन किसी का,
लेकिन ऐसा नहीं है-
भले ही टांगें फैली हैं, सुनाई दे रही है घुटी घुटी सी चीख,
दिख रहा है खून-
कहीं यह प्रसव तो नहीं?
एक हद तक यह एक काम है,
अंशतः हुनर का प्रदर्शन,
जैसे अकेले वाद्ययंत्र का हो रहा हो ऑर्केस्ट्रा में विशेष आयोजन।
वे खुद कह रहे हैं,
यह काम अच्छे तरीके से हो सकता है,
या बुरे ढंग से,
एक हद तक कला है यह!
(V)
इस दुनिया का जो सच साफ साफ दिखाई देता है,
वह आंसुओं से दिखता है ,
फिर मुझे क्यों धिक्कारते,
कि समस्या मेरी आंखों में है?
साफ साफ, बिना विचलित हुए देखना,
नज़रें हटाए बिना देखना-
यही है पीड़ा,
जैसे आंखों को फाड़कर चिपका दिया हो,
सूरज से दो इंच दूर।
फिर क्या देखते हो?
दुःस्वप्न? विभ्रम?
कहीं सपना तो नहीं?
तुम्हें क्या सुनाई दे रहा है?
आंख की पुतली के सामने चमकता उस्तुरा,
किसी पुरानी फिल्म का दृश्य लगता है,
यह सत्य भी है।
गवाही देने का साहस करना ही होगा।
(VI)
इस देश में तुम जो चाहे कह सकते हो,
क्योंकि भला तुम्हारी सुनेगा कौन?
बिलकुल सुरक्षित है इस मुल्क में ऐसी कविता लिखने की कोशिश,
जिसे कभी लिखा नहीं जा सकता-
ऐसी कविता जो कुछ नया नहीं बनाती,
न ही होती है तनकर खड़ी,
क्योंकि तुम्ही रोज बनाते हो नयी चीज,
और निकल लेते हो बचते बचाते , चुपचाप।
दूसरी किसी जगह यह कविता कोई आविष्कार नहीं,
दूसरी जगहों पर इस कविता के लिए चाहिए साहस,
दूसरी जगहों पर यह कविता लिखी ही जानी चाहिए,
क्योंकि कवि अब मर चुके हैं।
कहीं और यह कविता लिखी ही जानी चाहिए,
मानो मर चुके हो तुम,
जैसे तुम्हें बचाने के लिए इससे ज्यादा,
कुछ कर नहीं सकते, कुछ कह नहीं सकते।
कहीं और तुम्हें यह कविता लिखनी ही चाहिए,
क्योंकि इसके अलावा करने को कुछ भी नहीं।
Notes towards a poem that can never be written-Margret atwood-English text
Resouces related to this poem-
Jennifer M. Hoofard, Mills College, California, provides some background to the poem
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