अनुवाद- राजेश कुमार झा

कवि परिचय– मोहम्मद अलफैतुरी (1936-2015), जन्म दारफुर, सूडान। अल-अजहर विश्वविद्यालय से शिक्षा। पत्रकार, संपादक और कवि के रूप में ख्याति पायी। उनकी कविताओं पर सूफी विचारधारा की छाप दिखाई देती है। नस्ल, वर्ग और औपनिवेशिक अनुभव उनकी कविताओं के प्रमुख तत्व रहे हैं।
काले शहर की यंत्रणा
जब शहर की गलियों के ऊपर,
रात फैला देती है अपने अंधकार का जाल,
ढंक देती है अपने ग़म के चादर से-
फिर भी देख सकते हो उन्हें
दरारों को निहारते, निढाल अपनी चुप्पी में,
और तुम्हें लगता है कि वे हैं इत्मीनान,
गलत हो तुम- वे जल रहे हैं।
शहर की गलियों में जब,
अंधेरा गढ़ता है अपनी मूर्तियां,
और फिर बेतहाशा गुस्से में तोड़ देता है उन्हें,
तो रात की घुमावदार अंधेरी सीढियों पर
कहीं दूर उनके अतीत की ओर,
ये शहर ले चलेगा लोगों को
जिसके तटों पर बिखरी है समुद्री कस्तूरी की महक,
डूबा है जो अतीत के सपनों में इस कदर,
कि जगाना है उसे मुश्किल।
और सभी के अंदर होने लगती है एक हलचल-
जैसे हो मिट्टी की कोई दीवार,
जिस पर जड़े हों चाहतों के हीरे मोती बेशुमार।
सो जाती है जब रात और जगती है सुबह,
टिका देती हैं अंधेरे में मोमबत्तियां
दबे पांव कब्र के अंदर अपने घरों में लौट आती है शांति।
फिर शहर की आत्मा-
हो जाती है बंजर और दीनहीन,
दोपहर में बन जाती है भट्ठी, जैसे अंधों का चिराग।
अतीत के अफ्रीका की तरह ये शहर है
लोबान के बुरके में ढंकी बुढ़िया,
आग का गहरा कुआं,
भेड़ की सींग,
पुरानी इबादतों से बनी ताबीज,
आइने से पटी अंधेरी रात,
काली खूसट बुढ़िया का नग्न-नृत्य,
अपने काले आह्लाद में मस्त।
पाप के इस अंतराल को जिंदा रखा था मालिक ने,
गुलाम लड़कियों से भरा जहाज,
साथ में कस्तूरी, हाथी दांत और केसर,
तोहफे जिनकी खुशियां हो चुकी हैं नदारद,
जिन्हें हर युग की हवाओं ने
पेश किया हमारे वक्त के गोरों को
जो रहे हैं मालिक, हरदम हमेशा।
कल्पना लोक में दूर तक पसरा है बाग बगीचा,
नंगों को कपड़े पहनाने, उनके कपड़े उतारने,
अपने पुरखों की तरह बहता है जिंदगी की नसों में होकर,
रंगीन करता पानी और भगवान के चेहरों को भी,
हर मुंह में बसती है इसकी यंत्रणा
पैदा हो रहे आततायी, लोहे और गुलाम,
बनती है उनकी जंजीरें
हर रोज उपजता है कोई नया संत्रास…..।
और तब भी शहर की गलियों में
रात जब खड़ी करती है पत्थरों के बाड़,
भविष्य की बालकनी की ओर
वे चुपचाप फैला देते हैं अपना हाथ
वे हैं दबाए गए मुल्क की दबी हुई आवाजें,
उनकी स्मृतियां- जैसे छुरे का घाव,
अंधों के चेहरों की तरह हैं उनके चेहरे उदास।
देखो, वहां हैं वे,
चुपचाप सर को झुकाए,
और तुम्हें लगता है कि वे हैं इत्मीनान,
गलत हो तुम, जल रहे हैं वे।
Sorrows of the Black city-Muhammad Al Fayeturi- English Text–
https://docs.google.com/document/d/1WPy0Pf9WMBqVTa8yF2s7lLQl0Pp-tgTKWyShcm2jY0Q/edit?usp=sharing
अफ्रीका
जागो अफ्रीका, अंधेरे सपने से बाहर आओ
सोए हो कब से तुम, थके नहीं अबतक?
मालिक के लातों से अबतक थके नहीं तुम?
रात के अंधेरे में सोते हो चुका है तुम्हें कितना वक्त,
अपने टूटे-फूटे झोपड़े में थकावट से चूर,
धुंधली होती उम्मीदों से जकड़ा स्मृतिहीन मन,
जैसे वो औरत जो अपने हाथों से बुन रही,
कल आनेवाला अंधकार
जैसे वो लकवे का शिकार, कब्रिस्तान का चौकीदार,
न भविष्य का गौरव, न कोई महानता।
जागो अफ्रीका बाहर आओ अपनी अंधेरी पहचान से,
देखो कैसे तुम्हें छोड़ चली गयी दुनिया आगे,
कैसे आसमान में चक्कर लगा चुके तारे,
दुष्ट कर रहे हैं पुनर्निर्माण, जिसे किया था उन्होंने ही नष्ट,
और पुण्यात्मा कर रहे नफरत जिसे पूजते थे वो कभी,
मगर तुम हो बस वहीं के वहीं,
जैसे मुर्दा इंसान की खोपड़ी
हैरत होती है उनके उपहास-अट्टहास सुनकर भी
कैसे फटे नहीं तुम्हारे कान,
कुछ नहीं हो तुम, हो बस गुलाम।
हमारे इतिहास के गड़े मुर्दों को बाहर आने दो,
हमारी नफरतों की मूर्तियां स्थापित की जाने दो,
काले लोगों का आ चुका है वक्त,
जो अबतक छुपे थे रोशनी की आंखों से दूर
वक्त आ चुका है दुनिया को चुनौती देने का
वक्त आ चुका है मौत को मात देने का
सूरज को हमारे आगे झुकने दो
धरती को हमारी आवाज से डरने दो।
भर देंगे इन्हें हम अपनी खुशियों से
जैसे भरा था अपने ग़म से हमने
हां, अफ्रीका, आ चुकी है हमारी बारी,
अब हमारी बारी है अफ्रीका।
Africa-Mohammad Al Fayturi- English Text
https://docs.google.com/document/d/1tgmc_2tBRM9_CATWZlau5YMfIiNSpcHFB8FFsioWxxY/edit?usp=sharing
वागर्थ (अप्रील-जुलाई 2020 में प्रकाशित)
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