अनुवाद- राजेश कुमार झा

कवि परिचय– सैयद शमशुल हक (1935-2016) बंगलादेश के अग्रणी कवि, उपन्यासकार एवं लेखक। उनका पहला काव्य संकलन 1960 में प्रकाशित हुआ था। उनकी रचनाओं में अपने समय की वास्तविकता गहरे ढंग से प्रतिध्वनित होती है। आधुनिकताबोध के साथ ही उनकी कविताओं में बंगलादेश की सांस्कृतिक विरासत की गंध पिरोयी होती है। उन्होंने कविता, नाटक और उपन्यास के साथ ही अनेक विधाओं में रचनाएं की। उनकी कविताओं के 39 संकलन प्रकाशित हैं।
ये कविताएं सैयद शमसुल हक के काव्य संग्रह पोरानेर गहीन भीतोर के अंग्रेजी अनुवाद से ली गयी हैं। अंग्रेजी अनुवाद प्रोफेसर सोनिया अमीन ने किया है जो Deep Within the Heart (Bengal Publications, Dhaka, 2016) पुस्तक के नाम से प्रकाशित हुई हैं। कविताओं के नाम लेखक ने नहीं दिए थे इसलिए उनके साथ उनका क्रमांक दिया गया है। नाम हिंदी अनुवादक ने दिए हैं।
10. दुःस्वप्न
सुन रहा हूं दूर से आती किसी के रोने की आवाज,
सूख रही है नदियां, हवाओं में तैर रहा है अकाल का उच्छ्वास,
अब लोग यहां नहीं बनाते घर।
युवती के बालों में लिपटा है नाग,
सेमल के फूल में है कैद मेरे दिल से निकलती आदिम चीख,
ये ठहरी दोपहरी, मरी हुई चिड़िया, निर्दयी सूरज,
निशानियां हैं सर्वनाश की जो दे रहा है दस्तक
फिर भी कह दो तुम कि ये भी बीत जाएगा एक दिन।
अब इस धरती के ऊपर पूर्णिमा के चांद के सपने नहीं देखता मैं,
उस पेड़ की फुनगी पर बैठा है गिद्ध,
जिंदा रहता है जो खाकर इंसानों की आंख,
और मैं खड़ा हूं जड़वत जैसे गड़ गए हों जमीन में मेरे पैर,
मैंने बड़ी गहराई से देखा है वक्त के खांचे में पिरोए बरतनों को,
मगर मैं कुरेद कर निकालूंगा अपनी आंख उसी के लिए,
जिसे ढूंढ न सका मैं।
Poem number 10- Duhswapna-Syed Shamsul Haq-Bangla & English original
https://drive.google.com/open?id=1lrWYgp6Llf00NKMSR8kuzVasFpc_zwOw

12. मिलन
आंगन में पसरी है अंधेरे की लंबी होती लाश,
सेम की बेल के पीछे चांद छोड़ रहा है अपना केंचुल,
नवयुवती के बालों से टपके फूलों का परियां कर रही हैं शिकार,
तारों के भीतर कोई जुलाहा धुन रहा है रूई के फाहे,
वो चांदी की तश्तरी, हां वही चांद, झूम रहा है मिलन की इस रात
छितराए बालों वाली महोगनी ने पहन रखी है फकीरों की पोशाक,
दुधारू गाय के थन से टपक रहा है दूध,
मिल रहे हैं दो ध्रुव- हंसी और आंसू
जुलाहे की पूरी हो चुकी है तैयारी।
उन्होंने बुलाया है तुम्हें
तुम, जो दुख की पगडंडी पर मीलों चले हो अकेले,
शायद धड़क रहा है ब्रह्मांड तुम्हारे घायल दिल में,
उन्होंने बुलाया है तुम्हें एक बार फिर,
चांदनी से नहाई इस उजास रात में क्यों बंद कर दिया तुमने दरवाजा?
Poem number 12- Milan-Syed Shamsul Haq-Bangla & English original
https://drive.google.com/open?id=1O_c2cZyALtksnVt7nPHXalg77rqz2HJw

13. पूर्णिमा का चांद
तुम्हारे प्रणय की उस रात निकला चांद,
शायद था सबसे बड़ा, सबसे चमकदार।
रूई के फाहों से नर्म बादलों से घिरा,
जैसे बैठी हो रानी अपने सिंहासन पर।
जगमगा रहा था चांद की रोशनी में ,
पानी के भीतर किसी महल का अहसास,
अंधेरे के समंदर के किनारे खड़ा कोई पेड़,
मेरे कंधे पर रखकर हाथ कह रहा था-
इतने कम वक्त में कैसे दिखाऊं तुझे परियां,
जो आती हैं इंसानों के सपनों में,
मगर खेलती नहीं सचमुच गांव वालों के घरों के पिछवाड़े।
बहती जा रही है मेरी उदासी जैसे,
नदी की धार में बह रही हो कोई नाव,
बिन मांझी, बिन यात्री, बिना किराया, बिना पतवार।
छोड़कर जाए कोई और आ जाए दूसरा,
क्या तुमने कभी चाहा था बुलाना उसे?
इसीलिए ये धरती है लहलहाती लेकिन इसकी गलियां हैं बंजर,
लोग समझते नहीं और इसलिए खिलखिलाता है पूर्णिमा का चांद।
Poem number 13-poornima ka chand-Syed Shamsul Haq-Bangla & Engl
https://drive.google.com/open?id=12cV4Ba947Az3Zcr-Ct3WXtBAAiqJqf76
15. धिक्कार
तुमने मुझे कभी खूबसूरत नहीं कहा,
कभी न कहा कि लजीज है मेरे हाथ का बना पकवान,
अंधे हो तुम-
तुम्हें दी मैंने अपने यौवन के फूलों की सौगात,
दिखे नहीं तुम्हें पहली रात चादर पर पड़े लाल खून के छींटे
अंधे हो तुम।
बताओ क्या तुम्हें छोड़कर चली जाऊं उसके पास,
हाथ में पान लिए दरवाजे पर जो कर रहा है मेरा इंतजार,
या फिर उमेठकर अपनी साड़ी टांग दूं बबूल के पेड़ पर,
ताकि खौफ खाओ तुम,
हो जाएं तुम्हारी शामें डरावनी, निकलो जब अंधेरे में घर से बाहर,
होश उड़ जाएं तुम्हारे जब मेरा प्रेत पीछे से खीचे तुम्हारे कपड़े।
क्या तुम्हें ये निकाल पाएगा घर से जैसे कि-
छोड़ देता है किसान अपना घर सब कुछ खोने के बाद।
क्या तब भी तुम होओगे पराजित
चाहती हूं कि तुम्हारे खेत, तुम्हारी फसल में लग जाए घुन,
भगवान की कसम,
मगर लाचार खड़ी हूं इस जगह निस्तब्ध,
हाय मेरा दुखी,प्रेमहीन, सूना संसार।
Poem number 15- Dhikkar-Syed Shamsul Haq-Bangla & English original
https://drive.google.com/open?id=1526Kw3GGP5NsRwHPI66JCL6t4oqLeYIr

16. जमुना
जमुना में जब कभी खेता हूं नाव, याद आती है वो,
भारी हो जाता है हृदय, डूबने लगता है सूरज गहरे पानी में,
मेरे आसपास लोग खोलते हैं अपना मुंह, चलाते हैं हाथ पांव,
बेमतलब आवाजें निकालतें हैं,
न कोई देखता है, न समझता है।
पल भर के लिए बहती जाती है बायीं तरफ एक छोटी सी नदी,
मेरी नाव पर उसने छोड़ा था अपने पैरों के निशान,
कितना पानी बह चुका है तब से अब तक,
बीत चुके हैं न जाने कितने बरस,
मौसम बदल चुका है अनगिनत चक्र,
भटका हूं लेकर अपनी नाव, कभी इस किनारे,
तो कभी उस पार,
मगर याद नहीं आता कैसा था वो घाट।
किसान अपने सर के अंदर फोड़ते रहते हैं मिट्टी के घड़े दिन भर,
चरवाहे करते रहते हैं खिलवाड़, चुनते रहते हैं सेमल के फूल।
उठती है छोटी सी लहर और झूम उठता है
पानी के अंदर मेरे सपनों का घर।
पूछा था उसने ले चलोगे मुझे उस पार,
किस पार? कौन से किनारे जाना चाहती थी वो?
Poem number 16- Jamuna-Syed Shamsul Haq-Bangla & English original
https://drive.google.com/open?id=1kBUKZJJgEL0MAvAkwFjqnOR6DlK8YalT

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