(कलेकुरी प्रसाद की तेलुगू कविता पिदिकेदु आत्मगौरवम कोशम, अंग्रेजी अनुवाद- कुफ्फिर नलगुंदवार। हिंदी अनुवाद- राजेश कुमार झा )

[कलेकुरी प्रसाद (1964-2013) , तेलुगू कवि, लेखक, अनुवादक, दलित अधिकार कार्यकर्ता। तेलुगू दलित साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान। उनकी कविताओं में दलितों पर होने वाले अत्याचार और अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर मुखर रूप में सुनाई देता है। ]
मालूम नहीं कब पैदा हुआ था मैं,
लेकिन मार डाला गया था इसी जमीन पर मुझे हजारों साल पहले,
पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरनम।
मुझे नहीं मालूम क्या होता है कर्मवाद का सिद्धांत,
मगर पैदा हो रहा हूं बार बार वहीं जहां मरा था मैं कभी,
मिल गयी इसी मिट्टी में मेरी देह,
बन गया मेरा शरीर गंगा- सिंधु का मैदान,
आंसू बनकर पिघली मेरी आंखों की पुतलियां,
तो बह निकली इस छोर से उस छोर देश की सदानीरा नदियां,
मेरी नसों से फूट कर निकले जब खनिज,
लहरा कर हरी भरी बन गयी धरती , बरसने लगा सोना।
त्रेता युग में शंबूक था मैं,
बीस साल पहले कंचिकचेरला कोटेसु था मेरा नाम,
किलवेनमनी, करमचेदु नीरुकोंडा है मेरा जन्म स्थान,
परचुंद्रु है अब मेरा नाम जिसे
नृशंस सामंती आतंक ने हल से गोदवा दिया है मेरे सीने पर
संज्ञा नहीं आज से सर्वनाम है चुंद्रु,
हर हृदय आज है चुंद्रु, दहकता हुआ जहरीला गांठ,
मैं हूं हजारों दिलों का घाव, घावों का जखीरा
आजाद मुल्क में गुलाम, पुश्त दर पुश्त
सहता अपमान, शोषण, बलात्कार, अत्याचार
मुट्ठी भर इज्जत के लिए मैंने उठाया है अपना सर,
जाति के मद में चूर, दौलत से अंधे लोगों की इस धरती पर
मैं ही हूं वो जिसका जीना ही है प्रतिरोध का हस्ताक्षर,
मैं ही हूं वो मरता है जो बार,बार हर रोज, जीने के लिए।
मत कहो मुझे पीड़ित,
अपने कंठ में दी है मैंने विष को जगह,
पिया है अकाल मैंने ताकि हो सकें लोग खुशहाल
सर के बल उगता हुआ सूरज हूं मैं,
मैं ही हूं वो जिसने मारी लात सूरज के माथे पर,
ताकि खड़ा हो सके वह सीधा तनकर,
मैं ही हूं वो जो दहकते दिल की धौंकनी में दे रहा है नारों को हवा।
नहीं चाहिए मुझे हमदर्दी, दया के आंसू
पीड़ित नहीं, अमर हूं मैं
प्रतिरोध का लहराता परचम हूं मैं,
मेरे लिए आंसू न बहाओ,
हो सके तो दफन कर देना मुझे शहर के बीचो बीच,
गुनगुनाता जिंदगी के गीत उग आऊंगा बांस के झुरमुट की तरह
मेरी लाश को बना दो इस मुल्क का मुखपृष्ठ,
इतिहास के पन्नों पर छा जाऊंगा मैं बनकर एक खूबसूरत भविष्य
अपने दिलों में दो थोड़ी सी जगह,
बन जाऊंगा दहकते आग की ज्वाला
उगूंगा इसी जमीन पर बार बार।
***
https://drive.google.com/open?id=1vS6i8ZHhR91jM2jlQwwp7Z5CPeDh9Ff_
(English Text of the poem ‘For a fistful of self-respect’ bt KALEKURI PRASAD )
Leave a Reply