
अनुवाद- राजेश कुमार झा
मियां कविताओं की श्रृंखला में मैंने अब तक दो ब्लॉगों में १० कविताएं शामिल की हैं। प्रतिरोध की इन कविताओं की तीसरी और आखिरी कड़ी में प्रस्तुत हैं चार और कविताएं।
असम के बंगलाभाषी मुसलमानों को मियां कहकर बुलाते हैं। यह नामकरण उनकी सामाजिक स्थिति को दर्शाता है। हाल के समय में बंगलादेशी लोगों की पहचान के लिए चल रहे नागरिकता रजिस्टर बनाने की प्रक्रिया में इस समुदाय के लोगों को बाहरी, गैर-असमिया आदि कहकर हाशिए पर धकेला जा रहा है। इन्हें बड़े पैमाने पर हिंसा का सामना भी करना पड़ा है।
इस स्थिति के प्रतिरोध के तौर पर मियां कविता की शुरूआत हुई। हाल के वर्षों में मियां कविता ने नया रूप लिया है और नयी ऊर्जा के साथ सामने आया है। इसके पीछे सोशल-मीडिया का बड़ा हाथ रहा है।
पिछली दो कड़ियों को पढने के लिए नीचे के लिंक को फॉलो करें-
https://hyphen.blog/2018/08/12/मियां-कविताएं-1/
https://hyphen.blog/2018/08/22/मियां-कविताएं-2/
(11)
सेवा में सविनय निवेदन है कि… (खाबिर अहमद)
सेवा में सविनय निवेदन है कि,
मैं हूं, बाहरी, बसने आया हूं,
हूं घृणा के लायक मियां,
चाहे मामला कुछ भी हो,
मेरा नाम हो इस्माइल शेख, रमजान अली या माजिद मियां,
विषय- मैं असम का असमिया हूं।
कहने को बहुत कुछ है मेरे पास,
कहानियां जो असम की लोककथाओं से भी हैं पुरानी,
तुम्हारी नसों में बहने वाले लहू से भी पुराने किस्से।
आजादी के चालीस साल बाद भी,
अपने चहेते लेखकों के शब्दों में मेरी कोई जगह नहीं,
पटकथा लिखने वाले तुम्हारे लेखकों की कूची नहीं बनाती मेरी तस्वीर,
संसदों और विधानसभाओं में मेरा नाम जुबान पर नहीं आता,
शहीद स्मारकों पर नहीं लिखे जाते हमारे नाम,
छोटे हर्फों में भी नहीं छपते अखबारों में हमारे नाम,
वैसे अबतक तय नहीं किया है तुमने कि
बुलाओगे मुझे कहकर- मियां, असमिया या नव-असमिया?
और तुम बातें करते हो नदियों की,
कहते हो कि नदियां हैं असम की मां,
तुम बातें करते हो पेड़ों की,
कहते हो कि असम है धरती नीले पहाड़ों की,
मेरे रीढ़ की हड्डी है मजबूत और अटल जैसे पेड़ों के तने,
पेड़ों की छांव है मेरा पता…
तुम बातें करते हो किसानों, मजदूरों की,
कहते हो असम है धरती धान और मजदूरों की,
कहते हो तुम कि नमन करता हूं धान को,
मैं सर नवाता हूं पसीने के सामने
क्योंकि किसान का बेटा हूं मैं।
सेवा में सविनय निवेदन है कि,
मैं हूं बाहरी, बसने आया हूं,
हूं घृणा के लायक मियां,
चाहे मामला कुछ भी हो,
मेरा नाम हो खाबिर अहमद या मीजानुर मियां,
विषय- मैं असम का असमिया हूं।
पिछली सदी में कभी,
पद्मा के तूफान में बह गया मेरा पता,
किसी व्यापारी की नाव ने देखा मुझे बहते लहरों पर,
छोड़ दिया लाकर यहां,
तब से दिल से लगाकर रखा है मैंने इस धरती और जमीन को,
सडिया से लेकर धुबरी तक,
शुरू की है मैंने तलाश की एक नयी यात्रा।
उसी दिन से मैंने समतल बनाया है
लाल पहाड़ों को
जंगल काटकर शहर बसाए हैं,
धरती को समेट कर सांचे में गढ़ी हैं ईंटें,
ईंटों से बनाए हैं स्मारक,
धरती पर पसार कर चट्टानें,
कोयले की आग में स्याह कर लिया है अपने बदन को,
तैर कर पार की है नदियां,
खड़ा हुआ हूं किनारों पर,
ललकारा है मैंने सैलाबों को,
अपने खून पसीने से सींचा है फसलों को,
अपने पिता के हलों से धरती की छाती पर उकेरा है
अ….स…..म।
मैंने भी इंतजार किया है आजादी का,
नदी के तलछटों में बनाया है घोसला,
गाए हैं भटियाली गीत,
आते थे जब अब्बूजान,
मैं सुनता था लुइट का संगीत।
शाम को कोलोंग और कोपिली के किनारे खड़े होकर,
उनके तट पर निहारा है सोने को।
अचानक सन 83 की जलती हुई उस रात,
किसी खुरदरे हाथ ने मेरे चेहरे को छुआ,
नेली के काले चूल्हों पर खड़ा चीख उठा था मेरा देश,
मुकलमुआ, रुपोही, जुरिया में बादलों में लग गयी थी आग,
साया, डाका, पाखी डाका- मियां के घर,
जल उठे जैसे जलता है श्मशान,
सन’84 के सैलाब ने बहा डाली मेरी सोने जैसी फसल,
’85में किसी जुएबाज ने विधानसभा में,
कर डाला हमारा सौदा।
चाहे मामला कुछ भी हो,
मेरा नाम हो इस्माइल शेख, रमजान अली या माजिद मियां,
विषय- मैं असम का असमिया हूं।
(12)
मेरी मां (रेहना सुल्ताना)
मेरी मां, तुम्हारी गोद में किसी ने डाल दिया था मुझे,
ठीक वैसे ही जैसे मेरे पिता, दादा और परदादा को डाला था तुम्हारी गोद में,
फिर भी जो कुछ भी हूं मै उसके लिए,
मां नापसंद करती हो मुझको।
सच है, तुम्हारी गोद में डाल दिया था किसी ने मुझे
शापित मियां बनाकर।
तुम्हें मुझपर नहीं है यकीन,
क्योंकि मेरी टुड्ढी पर किसी वजह से है ये दाढ़ी,
पहनता हूं लुंगी पता नहीं किस वजह से,
थक गया हूं मैं, अपना परिचय देते तुम्हें।
तुम्हारे अपमानों को सहकर भी चीखता हूं मैं-
मां, तुम्हारा हूं मैं।
कभी कभी उधेड़बुन में पड़ सोचता हूं,
आखिर तुम्हारी गोद में आकर क्या मिला मुझे?
मेरी न कोई पहचान, न कोई जुबान,
खो चुका हूं खुद को, अपना सब कुछ
जो दे सकते थे मुझे एक पहचान,
फिर भी पाता हूं तुम्हारे करीब खुद को,
चाहता हूं पिघल जाना तुम्हारे अंदर,
कुछ भी नहीं चाहिए मुझे मां,
बस तुम्हारे कदमों में एक स्थान।
एक बार आंखें खोलो मां,
खोलकर अपने होंठ कह दो धरती के अपने बेटों को,
कि हम सब हैं बंधु-बांधव।
फिर से कहता हूं तुमको मैं,
हूं तुम्हारा ही बच्चा मां,
नहीं हूं मैं मियां,
न ही हूं बांग्लादेशी।
हां, मियां हूं मैं,
एक मियां।
मैं शब्दों को नहीं पिरो सकता कविता में,
गा नहीं सकता अपने दुखों के गीत,
यही प्रार्थना है मेरी, बस यही है मेरे पास।
(13)
भाई, मैं चार का हूं (अशराफुल हुसैन)
भाई, मैं चार से आया हुआ इंसान हूं,
ब्रह्मपुत्र के किनारे कोहुआ, झौकिरा की झाड़ियों के बीच,
नल-खोगरी की छांव में है मेरी झोपड़ी।
लोग मुझे चरुआ,भटिया, बाहरी शेख,
नव-असमिया, मैमनसिंघिया कहते हैं,
कहते हैं मुझे संदिग्ध बांग्लादेशी, गैर-आदिवासी,
बांग्लादेशी और पता नहीं क्या क्या।
वैसे मैं पैदा हुआ था असम में
गर्व होता है मुझे अपने को असमिया कहते।
मेरी जीभ फिसलती नहीं उस तरह,
मेरे पिता पहनते हैं नीले रंग की धारीदार लुंगी,
मां मेरी पहनती है साड़ी,
मेखला या चूड़ीदार पहनती है मेरी बहन,
और मैं और मेरा भाई पहनते हैं जींस।
मेरे पिता की टुड्ढी पर है थोड़ी सी दाढ़ी,
सर पर रखते हैं वे टोपी, हाथ में माला,
कंधे पर होता है उनके जूट का थैला,
लेकिन उनकी जुबान से निकलती है टूटी फूटी असमिया,
वे जाते हैं अपने काम की जगह से पुलिस थाने,
कभी बांग्लादेशी तो कभी आतंकवादी की तरह।
बड़े बड़े लोग उन्हें कहते हैं चाचा-चाचा,
छुड़ा लाते हैं हवालात से,
अगले दिन चल पड़ते हैं वे काम पर फिर से,
चुकाने घूस की मोटी रकम।
(14)
मेरे बेटे ने सीख लिया है शहरियों की तरह गाली देना (सिराज खान)
मैं चार से निकलकर जाता हूं जब शहर,
वे पूछते हैं, ‘ओय, कहां है तुम्हारा घर?’
कैसे बताऊं उन्हें,
‘बोरोगोंग के बीचो बीच,
चांदी से चमकते रेत से घिरा,
झऊ घास की झाड़ियों के बीच टिमटिमाता
घर है मेरा,
जहां नहीं है कोई सड़क, कोई सवारी भी नहीं,
जहां बड़े लोगों के कदम नहीं पड़ते कभी,
जहां की हवा है दूब की तरह हरी।‘
चार से निकलकर जाता हूं जब शहर की ओर,
वे पूछते हैं, ‘ओय, क्या है तुम्हारी जुबान?’
ठीक वही जो होती है पशु-पक्षियों की,
नहीं है हमारी कोई किताब, मेरी जुबान में होता नहीं कोई स्कूल,
मां के मुंह से निकालकर सुर,
गाता हूं मैं भटियाली,
जोड़ता हूं सुर से सुर, दर्द से दर्द
अपने दिल के करीब धरती की जुबान को सहेज,
आहिस्ता बोलता हूं रेत की फुसफुसाहट,
हर जगह है धरती की जुबान एक सी।
वे पूछते हैं, क्या है तुम्हारी जाति।
कैसे बताऊं उन्हें कि इंसान है मेरी जाति,
हम होते हैं हिंदू या मुसलमान,
तभी तक जब तक धरती बना देती नहीं हमें एक।
वे कोशिश करते हैं मुझे डराने की, ‘ओय, कब आए तुम यहां?’
मैं ‘कहीं’ से नहीं आया।
बाजर जब माथे पर जूट का पत्ता लादे,
निकला चार से शहर को,
बेवजह दबोच लिया उसे पुलिस ने,
शुरू हुई उसके कागजातों की जांच,
हर बार होकर कामयाब निकला बाजर बाहर।
क्योंकि वह रेत के इलाके से आया इंसान था,
दिए थे उन्होंने अजीबोगरीब नाम उसे,
कहते थे उसे चोरुआ, पमुआ, मैमनसिंघिया,
कुछ लोग बुलाते थे उसे नव-असमिया,
और कुछ कहते उसे बिदेसी मियां।
इन जख्मों को लेकर वह गया,
कब्र के अंदर।
इन जख्मों ने मिलजुल कर उठाया सर, फुफकार उठे मुझ पर,
ऐ, संपेरे,
कब तक रेंगोगे तुम, फिसलकर भागोगे इधर उधर,
अब मेरा बेटा जाने लगा है कॉलेज,
सीख चुका है वह शहर की तरह गाली देना,
वह थोड़ा ही जानता है लेकिन ठीक से समझने लगा है,
कविता के मीठे मोड़ को।
***
मियां कविताओं पर कुछ लेखों के लिंक नीचे देखें –
- https://www.firstpost.com/living/for-better-or-verse-miyah-poetry-is-now-a-symbol-of-empowerment-for-muslims-in-assam-3007746.html
- https://www.aljazeera.com/indepth/features/2016/12/protest-poetry-assam-bengali-muslims-stand-161219094434005.html
- https://thewire.in/culture/siraj-khan-shalim-m-hussain
- http://twocircles.net/2016may01/1462092489.html
- https://www.news18.com/news/india/climatechangeart-part-vii-miyah-poets-pen-verses-on-assamese-muslims-who-are-victims-of-environmental-displacement-1764821.html
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