अनुवाद- राजेश कुमार झा
कवि परिचय– अजमेर रोड़ पंजाबी तथा अंग्रेजी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं। अजमेर रोड़ ने पंजाबी साहित्य की सीमाओं का विस्तार किया है और उसे एक नयी पहचान दी है। वे कवि, नाटककार और अनुवादक के रूप में प्रख्यात हैं। अब तक उनके पांच काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनका काव्य संग्रह ‘लीला’ आधुनिक पंजाबी साहित्य में ऊंचा स्थान रखता है। आप्रवासी जीवन के अनुभवों के साथ ही मानव अस्तित्व के गहन प्रश्नों और राजनीतिक विषयों पर विशिष्ट अंतर्दृष्टि उनकी कविताओं की खास पहचान है। उनकी कविताओं की सरलता और व्यक्तिगत अनुभव की गहराई पाठक पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। अजमेर रोड़ की कविताओं को पढ़ते हुए अहसास होता है कि आखिर कविता को क्यों साहित्य की एक विशिष्ट विधा के रूप में स्वीकार किया जाता है।
उसने कभी सपना देखा
एक बार उसने सपना देखा कि,
वह लंबे बालों वाली सर्बियाई लड़की मिलेवा है,
जिसने शादी की है आइंस्टाइन से।
वह देखती रही चुपचाप,
जब आइंस्टाइन ने बिलकुल चपटे दिक को
मरोड़ डाला अपने हाथों से।
वह देखती रही जब आइंस्टाइन ने,
काल के अक्षुण्ण प्रवाह के कर डाले टुकड़े टुकड़े,
और बुन डाला उसे अलग अलग गतियों में।
मौजूद थी वह जब,
आइंस्टाइन ने फिर से जोड़ डाली चकनाचूर दुनिया।
जैसे जैसे वे होते गए महान, और भी महान,
बनते गए और भी विनम्र और नर्म,
आखिर में जब दुनिया आई छूने उनका हाथ,
मिलेवा मुस्कुराई और चली गयी।
उसने कहा वह चाहती है रहना,
अपने, खास अपने, दिक में,
चलना चाहती है अपनी ही गति में।
कभी उसने सपना देखा कि,
वह है फ्रांसिस जिलो,
वही युवती जिसने शादी की पिकासो से।
उसने देखा पिकासो को,
कैनवस पर अपनी कूची के सिरे से,
चारों तरफ पसरी चीजों की शांति के चिथड़े करते,
देखा उनके चेहरों को घनों व शंकुओं में बदलते।
पिकासो जब घिर गए घनों और शंकुओं की शोहरत में,
छोड़ कर चली गयी जिलो,
उसने कहा, नहीं बनना चाहती है वह घन।
फिर उसने सपना देखा जेनी का,
बनी थी जो बीबी मार्क्स की,
सुनाती थी कहानियां अपने भूखे बच्चों को,
जब मार्क्स खिलाते थे अपनी कल्पना में,
दुनिया के भूखों को खाना।
जैसे जैसे घुंघराली होती गयी मार्क्स की दाढ़ी,
जेनी ने देखा उन्हें बनता पैगंबर,
जो कर रहा था डांवाडोल देवों का सिंहासन,
आगबबूला देवों ने बोला जब मार्क्स पर धावा,
खड़ी रही जेनी दहलीज पर, आश्चर्य से भरकर।
कल रात उसने कोई सपना नहीं देखा,
उसका शौहर हो गया था गायब अचानक,
कहती है वह था परेशान, निराश,
उसे थी जरूरत मदद की,
उदासी भरा खालीपन,
फैलकर फूट गया उसके अंदर।
कल्ली
मेरे साथ चली कल्ली आठ मील बाजार को,
जहां होती थी खरीद-बिक्री पशुओं की गुलामों की तरह,
गाएं, बकरियां, बैल, ऊंट।
कल्ली का रंग था काला, खूबसूरत, उम्र छः साल,
भैंसों की जवानी का शिखर काल।
बांझ थी कल्ली,
खदेड़ डालती थी भैंसों को,
लगता था उसने तय कर रखा था कभी न ब्याना।
उसे रखना था मुश्किल,
पिता ने किया फैसला बेचने का।
साथ चली वह जब मैं लोहे की जंजीर में बांध कर ले चला उसे,
एक सिरा मेरे हाथ, दूसरा उसकी गर्दन में।
पंद्रह साल का था मैं।
बाजार में पहुंचते ही खत्म हो गयी उसकी घबड़ाहट,
बैठे थे बिक्रेता अपनी नियत जगहों पर,
जैसे साप्ताहिक अखबार के पूरे पन्ने पर छाया विवाह का विज्ञापन।
कल्ली बैठ गयी, भावशून्य थी उसकी आंखें,
जैसे मोक्ष के करीब हो कोई साधु,
मैं कभी बैठता, कभी घूमता जैसे कोई उपेक्षित बछड़ा।
कल्ली को किसी ने नहीं खरीदा,
आठ मील चलकर मेरे साथ घर वापस आ गई कल्ली।
पता नहीं था मुझे कि उसे देखकर,
पिताजी होंगे खुश या होंगे नाराज,
देखा उन्होंने उसकी तरफ बस ऐसे,
जैसे ट्रेन छूट जाने पर वापस आया हो घर का कोई सदस्य।
हथेलियों पर अंगारे
अपनी हथेलियों पर दहकते अंगारे रखो,
हो सकता है तुम्हारे हाथ न जलें।
एक अरब साल से जो सूरज उगता रहा है बिला नागा,
शायद वह कल न उगे।
तुम्हारे सामने रखी मेज,
गुरुत्वाकर्षण ने जिसे रोक रखा है जमीन पर,
किसी भी वक्त उड़कर चिपक सकती है छत में।
बेमतलब? बकवास?
शायद।
लेकिन मेरी कल्पना ने कर दिया है मना,
सूरज के चारों ओर चक्कर लगाने से हमेशा के लिए।
***
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