अनुवाद- राजेश कुमार झा
घर (वारसन शायर)
कवि परिचय- वारसन शायर का जन्म केन्या में-1988. माता-पिता सोमालिया से। एक साल की उम्र में ब्रिटेन। महत्वपूर्ण युवा कवि। अनेक साहित्यिक सम्मान प्राप्त। उनकी कविताओं में विस्थापन और आत्मीयता की नयी भाषा दिखाई देती है। शायर की रचनाएं विस्थापन के दर्द पर मलहम जैसा असर छोड़ती है।
घर छोड़कर कोई तबतक नहीं जाता,
जब तक घर न बन गया हो शार्क मछली का मुंह।
लोग सरहद की ओर भागते हैं तभी,
जब सारा शहर भाग रहा हो उसी ओर,
पड़ोसी दौड़ रहे हों जब तुमसे तेज,
उखड़ती सांसें कर रही हों गले को तारतार।
पुरानी टिन फैक्ट्री के पीछे चुराए जिसके चुंबन ने किया था पागल,
साथ गए स्कूल जिस लड़के के साथ,
आज हाथों में है उसके बंदूक, उससे भी बड़ी।
घर तभी छोड़ते हैं हम,
जब रहने नहीं देता घर हमें।
घर छोड़कर कोई नहीं जाता जब तक वह खदेड़ न दे हमें,
पैरों के नीचे हो आग,
पेट में हो खौलता लहू।
कभी सोचा न होगा ऐसा करना,
खंजर ने लिख दी धमकी गर्दन पर,
फिर भी दबी सांसों में बचा रखा राष्ट्रगान तुमने,
हवाई अड्डे के शौचालय में फाड़ डाले अपने पासपोर्ट,
और मुंह में ठुंसे कागज के टुकड़ों ने चीख-चीख कर कहा,
वापसी है नामुमकिन, वापसी है नामुमकिन।
समझना पड़ेगा तुम्हें कि,
अपने बच्चे को नाव में नहीं डालता कोई,
जबतक पानी न लगे महफूज ज्यादा धरती से।
जलाता है कोई अपनी हथेलियां,
ट्रेन में छिपकर, डब्बों के अंदर,
गुजारता है दिन और रातें ट्रकों के पेट में छुपकर,
खाकर अखबार के पन्ने तभी,
जब तय किए गए मील हों कीमती यात्रा से अधिक,
कंटीले बाड़ों के अंदर कोई नहीं रेंगता,
पीटा जाना पसंद नहीं आता किसी को
और न बनना किसी के रहम का हिस्सा।
शरणार्थी शिविरों में रहना पसंद नहीं करता कोई,
और न दर्द से बेहाल बदन के चप्पे चप्पे की खोजबीन,
जेल नहीं जाना चाहता कोई, मगर,
आग के शहर से ज्यादा महफूज है कैदखाना,
जेल का एक सुरक्षा प्रहरी है बेहतर,
ट्रक में भरकर आए लोगों से, दिखते हैं जो हमारे बाप की तरह।
नहीं सह सकता कोई,
कोई भी चमड़ी हो नहीं सकती इतनी भोथरी।
‘हब्सियों वापस जाओ, शरणार्थी, गंदे इंसान,
मेरे मुल्क का चूस रहे खून,
जी रहे सरकारी खैरात पर, बदबूदार लोग,
किया बर्बाद अपना मुल्क, अब करेंगे इस देश का विनाश।‘
गालियां, हिकारत भरी नजर,
फिसल कर पीठ से चली जाती हैं कहीं,
क्योंकि शरीर के टुकड़े होने से है बेहतर गालियां सुनना।
गालियां लगती है नर्म बजाय इसके कि,
चौदह लोग नोंच रहे हों तुम्हें जांघों के बीच,
अपमान सहन करना है बेहतर,
बजाय इसके कि देखो अपने घरों के खंडहर,
अपनी हड्डियां, अपने बच्चों का टुकड़ा टुकड़ा शरीर।
मैं घर जाना चाहता हूं मगर,
घर है मेरा शार्क का जबड़ा, बंदूक की नली,
कोई नहीं जाता छोड़कर अपना ठिकाना,
अगर घर,
न खदेड़ दे समुद्रतट की ओर,
न कहे
भागो, तेज भागो, और तेज,
छोड़ दो अपने कपड़े, रेंग कर पार कर लो रेगिस्तान,
तैर लो समंदर या डूब जाओ,
रहो भूखा या मांग लो भीख,
भूल जाओ आत्म सम्मान,
जिंदा रहना है ज्यादा जरूरी।
घर छोड़कर कोई नहीं जाता,
जबतक घर न बन जाता हो पसीने में तरबतर आवाज,
फुसफुसाता हो कानों में-
जाओ, भागो मुझसे दूर, अभी।
पता नहीं क्या हुआ है मुझे,
पर जानता हूं इतना,
यहां से ज्यादा महफूज है कोई दूसरी जगह।
Home- Warsan Shire-English Text
पिस रही है धरती (महमूद दरवेश)
कवि परिचय- महमूद दरविश (1942 – 2008)– महान फिलिस्तीनी कवि तथा लेखक। अपनी रचनाओं के लिए उन्हें फिलिस्तीन का राष्ट्र-कवि माना जाता है। उनकी रचनाओं में फिलिस्तीनी जनता के अपनी जमीन से उखड़ने और उनके संघर्षों की त्रासदी दिखाई देती है। उन्होंने लंबे समय तक पेरिस तथा बेरुत में निर्वासित जीवन व्यतीत किया। साहित्यिक जगत के अनेक सम्मान प्राप्त कर चुके दरविश को अपनी कविताओं के पाठ के लिए जेल की सज़ा भी झेलनी पड़ी। दरविश को अपने ही देश में विस्थापित जनता की आवाज माना जाता है।
धरती पिस रही है हमें,
फंसा रही है हमें आखिरी पगडंडियों में,
सिकोड़ कर अपना बदन,
हम कर रहे है कोशिश निकल पाने की।
धरती पिस रही है हमें,
काश अगर होते हम इसके गेहूं,
मरकर भी ज़िंदा रह पाते,
अगर होती ये हमारी माँ शायद करती रहम हम पर,
काश हम होते पत्थरों की तस्वीर,
सपने में जो दिखती है आइने की तरह,
चेहरे जो हैं अपनी रूह की आखिरी लड़ाई में मशरूफ,
हममें से जो बचेंगे जिंदा उनका कर देंगे कत्ल,
उनके बच्चों की दावत का हम मनाते हैं मातम,
हमने देखे हैं उनके चेहरे जो फेक देते हैं हमारे बच्चे खिड़कियों से बाहर।
एक सितारा चमकाएगा हमारा आइना,
आखिरी सरहद के आगे कहां जाएंगे हम ,
कहां उड़ेगी चिड़िया आखिरी आसमान के पार,
सोएंगे कहां पौधे हवा की आखिरी सांस के बाद?
सुर्ख धुंध से लिखते हैं हम अपना नाम,
अपने गोश्त से करते हैं आखिरी इबादत,
हम यहीं मरेंगे, इन्हीं आखिरी पगडंडियों पर,
यहां या वहां, हमारा लहू उगाएगा जैतून का पेड़।
Earth Presses against Us- Mehmoud Darwish-English Text

घर की ओर (महमूद दरवेश)
हम जाते हैं घर की ओर जो बना नहीं हमारी मांस-पेशियों से,
इसके शहतूत नहीं बने हमारी हड्डियों से,
चट्टान इसके नहीं मंत्रों की पहाड़ी बकरियों जैसे,
आंख वाले पत्थर नहीं हैं नरगिस के फूल।
हम जाते हैं घर की ओर,
जो बनाती नहीं सूरज से हमारे सरों के गिर्द रोशनी का घेरा,
कल्पना लोक की औरतें करती हैं हर्षध्वनि से स्वागत,
एक समुद्र हमारे लिए, एक हमारे खिलाफ,
जब पास न हों गेहूं और न पानी,
खाओ हमारा प्यार, पियो हमारे आंसू,
कवियों के लिए हाजिर है मातम का साफा,
संगमरमर के बुतों का काफिला,ऊंची करेगा हमारी आवाज,
वक्त की धूल को रखने आत्मा से मौजूद है अस्थि कलश,
हमारे लिए गुलाब, हमारे खिलाफ गुलाब।
आपकी महिमा आपकी, मेरा गौरव मेरा,
अपने घरों का अनदेखा ही देखते हैं हम,
यही है हमारी पहेली, महिमा है हमारी
इन्हीं रास्तों से लहूलुहान नंगे पांव ढोकर लाए हम सिंहासन,
जो जाती है हर कहीं सिवा हमारे घरों के।
आत्मा को पहचानना होगा, अपनी ही आत्मा के भीतर,
या फिर आए मौत यहीं।
We journey towards a home-Mehmoud Darwish-English Text
संगम (लिंडा होगन)
कवि परिचय– लिंडा होगन-जन्म 1947, कोलाराडो, अमरीका। अनेक काव्य संग्रह प्रकाशित। लैनन साहित्य सम्मान, थोरो पुरस्कार जैसे अनेक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित। उनकी कविताओं में पर्यावरण, मौखिक साहित्य तथा अमरीका के मूल निवासियों के विस्थापन की व्यथा जैसे विषयों की अभिव्यक्ति होती है।
धरती के ठीक बीचो बीच,
किसी काले और पवित्र प्रेम में,
मिलता है एक महासागर दूसरे महासागर से,
इसीलिए एक सागर की मछलियां,
जानती हैं दूसरे सागर का संगीत।
इसीलिए एक चीज बन जाती है दूसरी
और रेतघड़ी से बालू की धार गिरती है दूसरे समय में।
मैंने देखा था कभी व्हेल मछली का भ्रूण,
जो बना नहीं था तबतक व्हेल,
चमकते बर्फ पर जैसे काला रंग,
दिख रहा था उसपर इंसानी चेहरे का नाक-नक्श,
उंगलियां जो बड़ी होकर मुड़ जाती अंदर बन जाती मछली का गलफड़,
पानी के तुड़ते मुड़ते संसार की संतान,
शीतल और छोटा जो बन रहा था वर्गाकार।
कभी कभी मेरी चाहतें पैदा होती हैं उन यादों से,
जब हमारे शुरुआत की पगडंडियां मिली थी कहीं,
रहती थी व्हेल जमीन पर,
और हमने शुरु किया जीना जल से निकलकर हवा में।
कभी कभी मेरी चाहतें होती हैं पैदा उन यादों से,
छलकता है जब गिलास से पानी,
बच्चा जो पहुंचा यहां तक सभी तत्वों को पार कर,
आज मिला है उसे इंसानी शक्ल,
उलट पलट कर उसे देखा मैंने,
नहीं चाहता वह रहना हवा में,
अभी तो मुश्किल से बंद हुए उसके गलफड़ों के छिद्र,
अभी अभी हुआ है शामिल संगमों की जाति में,
लौट जाना चाहता था वह पानी के ज्वार की तरह।
जब जा रहा था वह, मैंने की बात पंचतत्व के पार,
कहा मैंने उससे जाओ।
उस रात जब हटी धुंध, तो जैसे मैं बन चुका था जंगली घोड़ा,
तैर रहे थे वे नदियों के पार,
पानी में था अंधकार,
घोड़ों में था और भी गहन अंधकार,
और फिर, वे जा चुके थे।
Crossings-Linda Hogan-English Text

पनाहगाह (जे.जे. बोला)
कवि परिचय– जे.जे. बोला, जन्म किन्सासा,कोंगो, 1986. छः साल की उम्र में अपने माता पिता के साथ इंग्लैंड आए। शरणार्थी के रूप में अपने जीवन के अनुभवों की अभिव्यक्ति इनकी कविताओं में दिखाई देती है। वे बास्केटबॉल खिलाड़ी बनना चाहते थे लेकिन शरणार्थी होने के कारण उनके पास दस्तावेज नहीं थे। उनकी कविताएं अत्यंत ऊर्जावान हैं जिनमें नस्ल, फेमिनिज्म, राजनीति, प्यार जैसे भाव झलकते हैं।
कल्पना करो,
कि कैसा लगता है घर से भगाया जाना,
जिसे चाहते हो दिलो जान से,
मुट्ठियां तोड़, उंगलियां मरोड़ छीन लिया जाना,
जैसे छूट जाते हैं हाथ, करते हैं खींच कर अलग प्रेमियों को।
मेरे अब्बू करते थे बातें घर पहुंचने की,
जाने पहचाने चेहरों की,
पड़ोस में रहने वाली लड़की जो बड़ी होकर बनी मेरी मां,
बाजार में फल बेचने वाला दूकानदार,
सड़क के दूसरे छोर पर बैठा अकेला इंसान,
जिससे कोई नहीं करता बात,
और गली के इस किनारे हमारा घर,
जिसमें टिमटिमाता था इकलौता दिया और
आगे अंधेरा, बस अंधेरा,
जहां बैठकर करते थे बातें प्रेतों-दैत्यों की,
जो ठिठके रहते थे आसपास, आते सिर्फ रातों को,
पकड़ने बच्चों को जो सुनते थे किस्से राक्षसों के।
ऐसे ही जीते थे वे,
जमीन में दफन यादें,
जैसे हों इतिहासकारों को मिलने वाली वस्तुएं,
जैसे अंतिम सांसें ले रहे प्रियजन के होंठों पर आए आखिरी लफ्ज,
पवित्र इतने कि प्रेत व राक्षस भी न कर पाएं गंदा।
मगर कुछ प्रेत दिन में भी आते थे,
जो कर देते थे परिवारों को तहस नहस,
प्रेत जिनके हाथ थे विशाल और उंगलियां जिनकी सोती थीं बंदूक के घोड़ों पर,
चीरकर आसमान गूंजती थी गोलीबारी की आवाज,
लगने लगे थे जो चिर-परिचित,
जैसे खिड़की के शीशे पर गिरती बारिश की बूंदें,
प्रेत जो जाकर छुप जाते थे भाषणों, सूट-बूट के पीछे,
राक्षस जो खदेड़ कर भगा देते थे परिवारों को,
छोड़कर सब पीछे, होकर मजबूर।
याद है मुझे जब पहली बार उतरा था हवाई जहाज से,
हर चीज लगी थी अनजानी, सहमाती, डराती,
फेफड़ों में गयी हवा तो फूल गयी सांस,
पनाह लेने आए थे यहां, कहलाए शरणार्थी,
छिपा लिया खुद को उनकी जुबान में,
जब तक हो न गयी उनकी तरह आवाज,
पहनने लगे कपड़े उनकी तरह,
जबतक दिखने न लगे ठीक उनकी तरह,
बना लिया इसे अपना घर,
जब तक रहने न लगे ठीक उनकी तरह।
फिर हुआ शुरू सिलसिला जाने पहचाने चेहरों का,
सामने वाले घर की लड़की जो कभी बनेगी मां,
बाजार में फल बेचने वाला दूकानदार,
सड़क के दूसरे छोर पर बैठा अकेला इंसान,
जिससे कोई नहीं करता बात,
और गली के इस किनारे हमारा घर,
जिसमें टिमटिमाता था इकलौता दिया और
आगे अंधेरा, बस अंधेरा,
जहां बैठकर हम देखते थे पुलिस,
जो आती थी सिर्फ रातों को,
गिरफ्तार करने नौजवानों को,
जो बैठकर देखा करते थे पुलिस को।
ऐसे जीते थे हम जिंदगी,
याद है मुझे एक दिन वे कर रहे थे बातें,
ये आते हैं छीनने हमारा रोजगार,
उन्हें जाना होगा वापस आए हैं जहां से,
उन्हें नहीं था मालूम कि मैं भी हूं वही,
मैंने कहा शरणार्थी तो बस चाहता है बसाना अपने लिए एक घर।
इसलिए अगली बार जब तुम अपने घर जाओ,
आराम से बच्चे को बिस्तर पर सुलाओ, कहो शुभरात्रि,
तो खुश होना कि प्रेत व राक्षस नहीं आए तुम्हारे लिए,
अपने सूट-बूट में वे आए नहीं तुम्हारे लिए, कभी नहीं,
झूठ बोलते अखबार और मीडिया आए नहीं, तुम्हारे पास, कभी नहीं,
नफरत नहीं झेली तुमने, कभी नहीं,
और आज अपने दिलों के अंदर महसूस करते हम सब,
हम सभी जाना चाहते हैं वहीं,
कहते हैं जिसे घर।
बहुत बढ़िया।
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