कवि परिचय– मैथ्यू शेनोडा मिस्र के कवि, अमेरिका में प्रोफेसर। जन्म मिस्र के कॉप्टिक ईसाई समुदाय में । कविताओं में प्रवासी जीवन के अनुभवों की तीव्र अभिव्यक्ति । अरब अस्मिता उनके लेखन का महत्वपूर्ण अंग है। उनके कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्हे अनेक साहित्यिक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।
अनुवाद-राजेश कुमार झा
इस जगह
हवाएं समझाती हैं हमें कि,
भूगोल का अर्थ है रेत में घिसटते बच्चों के पैरों के निशान,
लाल सागर के मूंगों से बना,
अफ्रीका से लेकर सीरिया, फिलिस्तीन और लेबनान का मानचित्र।
सिनाई की पहाड़ियों, नील नदी और समंदर के बीच पसरी
कैरो की गलियों में
हवाएं छिपाकर बैठी हैं अपने सीने में डर,
पुकारती हैं जुलाहों को- बचा लो आसमान,
अपने सूत के धागों और नील के रंग से।
हम, वादा करते हैं खुद से
कि ये दुनिया बचाकर रखेगी हमें,
कि बच्चों के प्यास के पहले नहीं सूखेगा वसंत।
हम, बलुआहे पत्थर पर घुमाते हैं अपनी उंगलियां,
जिनकी खुरदरी, ऊंची नीची सतह कहती हैं कहानियां।
हम, अंजुरी में भरकर करते हैं दुआएं,
कि चिड़िया सीख जाएगी पीना पानी।
पैदा हुए जिन गलियों में हम,
उनकी बुनियाद में शामिल है टूटकर बिखर जाना,
और बिखरने से खुद को बचा लेना।
फेरी वाले के सर पर बंधा काफिया,
किसी ने बुना है समझ कर
कि रेगिस्तान में हवाएं,
जान ले भी सकती हैं,
ज़िदगी दे भी सकती हैं।
झुर्रियों को ढंके गुलूबंद के नीचे,
हल ने उकेरी है किसान के चेहरे की रंगत,
और हैरत में डूबे सोचते हैं हम,
क्यों हो गयी हैं बच्चों की आंखें इतनी बड़ी,
जो भड़का रही है शोले,
कोयले सी जमीन पर।
(नया ज्ञानोदय, साहित्य वार्षिकी-हमारा काल, हमारी कविता, जनवरी 2018 में प्रकाशित)
पूर्वज
अपने सरों पर रखकर खड़िया मिट्टी के घड़े,
हमारी दादियां विचरती थीं नील नदी के किनारे,
हमारे दादा धोते थे कपड़े नील नदी के तट पर,
चूना पत्थर पर नाचते बजाते पानी की कीमती बूंद,
सुखाते खजूर के दाने नील नदी के किनारे
जोड़ते उनकी मिठास में शांति का चुंबन।
अपने कंधों पर ढोया था उन्होंने,
नील नदी का बोझ और हम सब का वजन,
और करते रहे थे धरती को तरोताजा,
अपने सख्त पैरों की धमक से।
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