तीन कवि, चार कविताएं

(के. सच्चिदानंदन, शरणकुमार लिंबाले और दिलीप चित्रे)

अनुवादः राजेश कुमार झा

Dilip Chitre, K. Sachidanandan and Sharankumar Limbale (Clockwise)

एक बूढ़े कवि की आत्महत्या की चिट्ठी (के. सच्चिदानंदन)

अंधेरे में चलते चलते, अंधा हो गया मैं।
चुप्पियों के बीच रहते रहते, बहरा हो गया मैं।
गुरू हमेशा बातें  करते हैं रोशनी की,
मगर है कितनी दूर,अब और कितनी दूर?
पैंगंबर, जिन्होंने सिखायी हमें क्रांति,
बताओ है दूर,अब और कितनी दूर?

थक चुके हैं मेरे पांव,
दिल की धड़कन हो चुकी है कमजोर।
कवि ने कहा था नहीं बोलना चाहिए बच्चों से झूठ
पर तुम अब भी बोलते हो झूठ,
वैसे दुनिया से वह कवि अब जा चुका है।

मैंने सच के एक शब्द के लिए,
छान मारी दुनिया की सभी किताबें,
आंसू के एक कतरे की खातिर,
तलाश लिया हर सूखा।
डूबती हुई जमीन पर बैठकर,
मैं नहीं कर सकता बातें अब धरती की खूबसूरती की।
तूफान के अंदर बैठकर, नहीं कर सकता बातें पेड़ों की।
महाप्रलय के बीच रहकर, नहीं कर सकता बातें प्रारंभ की।

मेरा भी था एक मुल्क,जब हुआ था मेरा जन्म।
आज हूं मैं एक शरणार्य़ी।
जन्म के समय एक जंजीर से बंधा था मैं,
आज बंधा हूं न जाने कितनी जंजीरों से।
मैंने अन्याय के खिलाफ मारी थी चीख, उठाया था हाथ,
दुष्ट शिकारी से कहा था- रुको।

मेरी ज़िंदगी है निष्फल उद्यमों का ढेर,
बिना सुधारे, ठीक-ठाक किए,
यह पहली कविता है मेरी।
रात का पहला गाना है यह,
जिसे गा रहा हूं मैं बेझिझक।
शुष्क हो गया है मेरे सपनों का वसंत।
चलो डालते हैं परदा, परछाइयों के इस खेल पर,
जल्दी, बेहद आसानी से जैसे रिमोट से बंद करते हैं टीवी सेट।
अलविदा। पुकारना मुझे जब बदल जाए दुनिया,
मैं वापस आऊंगा,
जब भूखे कीड़े और
राह रोकने वाली परियां आज्ञा देंगी मुझे।

An Old Poet’s Suicide Note-K. Sachidanandan (English)

Jail-Limbale-2

कारागार (शरणकुमार लिंबाले)

फौज ने क्यों गिरफ्तार कर लिया है मुझे,
नज़रबंद कर दिया है घर के भीतर।
क्या हिंसक तोपें कैद कर पाएंगी मेरी सांसें?
क्या मिसाइलें डरा पाएंगी मुझे?
मैं चलता हूं तो लोग जमा होते जाते हैं,
दंगे की अफवाह फैल जाती है शहर भर में।
तुम अपनी तैयार बंदूकें कहां रखोगे?
किसने कहा मेरी जिंदगी एक दंगे से ज्यादा नहीं हो सकती?
फौजी ताकत से मुझे दबाकर, बढ़ पाओगे आगे?

संप्रभुता? राष्ट्रीय एकता?
तुमने सिखाया था मुझे राष्ट्रीय एकता का पाठ,
दिया था मुआवजा,
मेरी आंखें फोड़ने के लिए,
बहिष्कार के लिए,
बलात्कार के लिए,
मेरे इलाके को आग में जलाने के लिए,
हत्या और अपमान के लिए।

मुझे डराने के लिए कितने तरीके इजाद किए तुमने,
कभी गिना है उन्हें?
क्या अदालतों ने की है मदद तुम्हारी?
कितनी जेलों के उस पार,
बेइमान समंदरों के उस छोर,
तुम रहते हो संसदीय लोकतंत्र के अंदर।

तोड़ दो जेल की दीवारें,
घर की दीवारें ढहा दो,
जाति, धर्म, परिवार की दीवारें गिरा दो,
बिना दीवारों के आओ साझा करें इंसानियत।
तैयार हो तुम?
वरना, बढ़ते रहेंगे कारागार।
मैं नहीं समा पाऊंगा किसी जेल में।
इसीलिए स्कूल, कॉलेज, घर, सब बन जाएंगे जेल
और आखिर में, तुम कैसे उम्मीद लगाए बैठे हो,
कि तुम भी स्वयं न बन जाओगे एक जेल?

क्या तुम इतनी सारी जेलें बनाना चाहते हो?
जबकि आसान सा तरीका है तुम्हारे सामने-
बस मान लो कि मैं भी एक इंसान हूं।

Prisons-Sharankumar Limbale (English)

Chitre poem illusration1

 घर वापस लौटते पिता (दिलीप चित्रे)

मेरे पिता देर शाम की गाड़ी से वापस लौटते हैं
पीली रोशनी में चुपचाप खड़े यात्रियों के साथ सफर करते,
नहीं देखती उनकी आंखों के सामने गुजरता जाता है शहर।
उनकी पतलून और कमीज गीली हो चुकी है
काली रेनकोट कीचड़ के धब्बों से दागदार।
किताबों से भरी उनकी थैली फट रही है यहां वहां।

मानसून की बारिश भरी रातों में,
उम्र से बुझती हुई उनकी आंखें,
टटोल रही हैं घर का रास्ता।
अब मैं देख रहा हूं उन्हें ट्रेन से उतरते,
जैसे लंबे वाक्य से निकाल दिया गया कोई शब्द,
मटमैले धूसर प्लेटफॉर्म को पार कर रहे हैं वे जल्दी जल्दी,
रेलवे की पटरी भी पार कर ली उन्होंने,
गली में आ चुके हैं अब वे।
कीचड़ से सनी है उनकी चप्पलें,
मगर वे तेज कदमों से चले आ रहे हैं।

घर आ चुके हैं वे।
देख रहा हूं उन्हें हल्की लिकर वाली चाय पीते,
वे खा रहे हैं बासी रोटी और पढ़ रहे हैं किताब।
वे शौचालय जाकर विचार करते हैं-
कैसे अलग थलग पड़ जाता है,
इंसान की बनाई दुनिया में इंसान।

बाहर आकर बेसिन के पास कांप रहे हैं वो,
उनके बादामी हाथों पर गिर रहा है ठंढा पानी,
कुछ बूंदें चिपकी रह जाती हैं उनकी कलाइयों के पके रोओं से।
उनसे नाराज बच्चे उनसे चुटकुले साझा नहीं करते,
न ही बतातें हैं अपने दिल के राज।

रेडियो की घरघराहट सुनते सुनते
अब वह सोने चले जाएंगे औऱ देखेंगे सपने-
अपने पूर्वजों और पोते-पोतियों के,
सोचते हुए उन खानाबदोशों के बारे में
जो दाखिल हुए इस महाद्वीप में एक छोटे से दर्रे से।

Father Returning Home-Dilip Chitre (English)

Chitre poem illusration2

पैंगंबर  (दिलीप चित्रे)

पैगंबरों की आंखों में, पेंच से कसी होती है रोशनी
वे नहीं देख सकते अंधेरा, अपनी लंगोट के भीतर।
उनकी आवाज में होती है नफासत,
बोल में होती है मिठास।

पैंगंबर जब आते हैं तो कुत्ते नहीं भूंकते,
सिर्फ हिलाते रहते हैं अपनी दुम, अखबार के रिपोर्टरों की तरह।
लपलपाती हुई उनकी जीभ बाहर निकली रहती है,
उतनी ही ज्यादा, जैसे कोई संपादकीय।

पैगंबरों के आते ही
फट जाती है भीड़, खरबूजे की तरह।
मगर ऐसा भी वक्त आता है,
जब स्वर्ग के नक्षत्रों का खुल जाता है फ्यूज,
भूली हुई केतली की तरह खौलने लगता है आकाश
खुल जाती है आंखों में कसी हुई पेंच,
स्तब्ध हो जाता है अंधा पैगंबर
तब समझ में आती है उसे,
लोहे की बनी स्वर्ग की सीढ़ियों और उसकी वास्तुरचना की जटिलता।

पहली बार उसे समझ में आती है भगवान की अमानवीय बोरियत,
उनकी जूतियों का आकार,
उनके पैरों का वजन,
और उसके हर कदम में दिखने वाला पूर्ण एकाधिकार।
तभी उसे समझ में आता है-
कि अबतक की उसकी यात्रा थी केवल
भगवान की विराट जमहाई के बीच का काल और अवकाश।

Prophets-Dilip Chitre (English)

***

 

 

 

 

 

 

3 thoughts on “तीन कवि, चार कविताएं

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  1. है और अनुवाद में भी कविता की आत्मा बनी हुई है बहुत बहुत साधुवाद आपको, अच्छे अनुवाद के लिए।

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