(अनुवाद- राजेश कुमार झा)
धीरे धीरे मरते जाते हैं हम,
जब, नहीं करते यात्राएं,
बंद कर देते हैं, पढ़ना।
भूल जाते हैं सुनना, जीवन का स्पंदन,
मुश्किल हो जाता है, अपने को अच्छा कहना।
धीरे धीरे मरते जाते हैं हम,
जब, आत्म सम्मान का कर देते हैं क़त्ल,
ज़रूरत होने पर भी लेते नहीं किसी की मदद।
धीरे धीरे मरते जाते हैं हम,
जब, आदतें बना लेती हैं ग़ुलाम अपनी।
अपनाते हैं पगडंडी, वही रोज वही,
जिदगी दुहराती है कहानी, वही रोज वही,
कपड़ों के रंग रह जाते, वही रोज वही,
बात करनी हो जाती है मुश्किल,हो अगर कोई अजनबी।
धीरे धीरे मरते जाते हैं हम,
जब, जज्बातों के तूफान से कतराते हैं हम,
दिल में भड़कते शोलों से घबड़ाते हैं हम,
दिल की धड़कनें हो जाएं तेज, तो डर जाते हैं हम।
धीरे धीरे मरते जाते हैं हम तब,
जब, ज़िदगी नहीं बदलते,
भले ही नापसंद हो अपनी नौकरी,
सूख गई हो प्रेम की बेल,
अनजान रास्ते लगें डराने,
सपने न खींचें अपनी ओर,
ज़िदगी में कम से कम एक बार
सयानी सलाह से न कर दें इंकार।
We start dying Slowly- English Version of the poem
* इस कविता के बारे में कहा जाता है कि इसके लेखक पाब्लों नेरुदा हैं। इंटरनेट पर यह कविता पाब्लो नेरुदा की रचना के रूप में कई वर्षों से प्रचलित रही है। लेकिन पाब्लो नेरुदा फाउंडेशन ने यह स्पष्ट किया है कि इसके लेखक नेरूदा नहीं हैं। इस कविता की लेखिका मार्था मद्योस (Martha Medeiros) हैं जो ब्राजील की हैं।
(http://www.laht.com/article.asp?ArticleId=325275&CategoryId=14094)
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