काउंटी कलेन (1903-1946), प्रसिद्ध अफ्रीकी अमरीकी कवि। हारलेम प्रतिरोध की एक मुखर पहचान। कलेन का मानना था कि कला नस्ल की सीमाओं से परे एक विधा है जिसका इस्तेमाल श्वेत और अश्वेत लोगों के बीच की दूरी को कम करने में किया जा सकता है।
Countee Cullen- A biographical sketch
इस कविता से एक रोचक प्रसंग जुड़ा हुआ है। भारत छोड़ो आंदोलन के शुरू होने के 10 दिनों के अंदर, 19 अगस्त 1942 को अमेरिका में एक कविता अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थी। प्रसिद्ध अफ्रीकी-अमेरिकी कवि काउंटी कलन की इस अंग्रेजी कविता का शीर्षक था ‘करेंगे या मरेंगे’, डू ऑर डाय’ नहीं, ‘करेंगे या मरेंगे’। सोचने की बात ये है कि आखिर अंग्रेजी में लिख रहे इस अश्वेत संघर्ष के कवि ने ‘करेंगे या मरेंगे’ का अंग्रेजी अनुवाद न करके अपनी अंग्रेजी कविता का शीर्षक गांधी के शब्दों को ज्यों का त्यों रखा, जबकि हमारे देश के अनुवादक और इतिहासकर्मी ‘करो या मरो’ क्यों लिखने लगे ?
(अनुवाद- राजेश कुमार झा)
देता है कौन वाणी को उदात्तता और शब्दों को महानता?
कौन मढ़ता है आभामंडल शब्दों के चारों ओर?
कैसे बन जाती है कोई पुकार जादुई छड़ी,
खोल देती है बंद दरवाजों को।
कैसे वही शब्द मान लिए जाते अनर्गल और कर्कश,
बस इसलिए कि गूंज रहे होते हैं वे कहीं और?
शायद बोलने वाले की त्वचा के रंग,
आँखों, होंठ या एशियाई साँसों की महक का है फर्क,
वरना क्यों कही जाती ‘करेंगे या मरेंगे’- नीची, ओछी
पश्चिम में गूँजे मुक्ति के उद्घोष –
‘आजादी दो या मौत’ से?
अपनी गुलाम धरती की तरह वंचित, रूखी
क्या भारत की आवाज हो चुकी है-
इतनी दुर्बल,अर्थहीन, अभद्र-
कि दावा करते हैं आजादी के लिए लड़ने का जो,
अनमने से सुन रहे हैं युद्ध के इस आह्वान को,
वही शब्द, जिन्हें सुनकर अंग्रेजी जुबान में,
उठालिए थे हथियार दृढ़-निश्चय से, उन्होंने कभी।
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