(बर्त्तोल ब्रेख्त- 20वीं सदी के महान कवि, नाटककार तथा निर्देशक। जन्म- जर्मनी 1898, मृत्यु-1956। ब्रेख़्त ने नाटकों को एक नयी शैली प्रदान की। मदर करेज और थ्री पेनी ओपेरा उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। इनकी रचनाओं में शांति की पक्षधरता तथा फासीवाद एवं युद्ध विरोधी स्वर मुखर रूप में दिखाई देता है।)
अंधायुग
(बर्त्तोल ब्रेख्त)
(अनुवाद- राजेश कुमार झा)
सचमुच जी रहा हूँ अंधे युग में मैं,
निष्कलुष दुनियाँ बेमानी है
सपाट कपाल के पीछे छिपा है पत्थर का दिल
हँसने वाले ने सुनी नहीं हैं भयंकर खबरें।
आह, कैसा युग है यह
जब पेड़ों की चर्चा मानो एक अपराध है
क्योंकि यह छुपाती है हमारी खामोशी अन्याय के खिलाफ।
और जो चुपचाप चला जा रहा है सड़क के पार
क्या वह दूर नहीं है विपदा में घिरे अपने दोस्तों से?
यह सच है कि जीविका चला रहा हूँ अपनी
मगर यकीन मानो, महज इत्तफाक है ये।
चाहे जो भी करूँ, मुझे हक नहीं भरपेट खाने का
भाग्य का खेल है, मैं बच गया।
वो कहते हैं खाओ पीओ मौज करो।
खुश रहो कि तुम्हें ये सब मिल रहा है
लेकिन कैसे मैं खाऊँ, पिऊँ, मौज करूँ
जबकि मेरा खाना किसी गरीब के मुँह का निवाला है।
मेरा गिलास किसी प्यासे के हिस्से का पानी।
फिर भी खाता पीता हूँ, मौज करता हूँ।
मैं भी हो सकता हूँ चतुर, होशियार।
धर्मग्रंथ बताते हैं बुद्धिमानी का मतलब-
दुनियाँ के लड़ाई झगड़ों, संघर्षों से बचो,
जिओ अपनी छोटी से जिंदगी अच्छे से।
डरो मत किसी से, पर हिंसा मत करो
बुराइयों का बदला दो अच्छाइयों से,
इच्छाओं की पूर्ति नहीं, भूलना है बुद्धिमानी।
पर संभन नहीं मेरे लिए करना ये सब।
सचमुच जी रहा हूँ, अंधे युग में मैं।
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