पाब्लो नेरूदा की कविता

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मृत्यु (पाब्लो नेरूदा)

(अनुवादः राजेश कुमार झा)

सूने कब्रिस्तान निस्पंद, अस्थिपूरित कब्रें,

मन की अंधेरी गहराइयां,

अंधकार, अंधकार, अंधकार,

गहन झंझावात में डूबती नैया-

मृत्यु घेरती है अंतस्तल को,

जैसे घुट रहा है गला दिल ही दिल में,

जैसे अपनी ही त्वचा से पलायन करता प्राण, हौले हौले।

बिछे हैं शव, चिपचिपे

मृत्युप्रस्तर की कंपकंपाहट,

अस्थियों में फुसफुसा रही है मृत्यु की निश्छल ध्वनि,

एक अबूझ चीख की तरह,

आंसू या बारिश की बूंदों की तरह

सीलन में फैलती जाती है मृत्यु।

देखता हूं कभी मैं अकेला- पालों पर तिरते ताबूत,

गिराते लंगर-ज़र्द लाशों के संग,

घुंघराले बालों वाली औरत

मृत, परियों जैसे धवल दुकानदार,

चिंतामग्न लड़कियां-अफसरों को ब्याही,

मृत्यु सरिता में आरोहित ताबूत,

गहरी नीली नदी-

दूर उस ओर पालें तनीं हैं- मृत्यु के स्पंदन से।

गूंजती है मृत्यु हर ओर,

जूते बगैर पैरों के,

अचकन बगैर आदमी के,

खटखटाती है दरवाज़ा

-अंगूठी मगर रत्न नदारद, उंगलियां गायब।

चीखती है वह बगैर मुंह के,

जीभ और गला भी नहीं।

फिर भी कदमों की आहट,

उसके कपड़ों की सरसराहट, बजती है चुपचाप,

एक पेड़ की तरह।

मुझे कुछ पता नहीं, अनजान हूं मैं उससे,

बमुश्किल देखता हूं उसे,

पर शायद उसका संगीत है भींगे, बैगनी रंग में डूबा,

रचा बसा है धरती में जो,

क्योंकि मृत्यु का चेहरा है हरा,

इसकी अपलक दृष्टि है हरी,

समायी है इसमें सुर्ख पत्तियों की नमी,

और व्याकुल सर्दियों का गहरा रंग।

लेकिन मृत्यु ने भेष बनाया है झाड़ू का,

चूमती है धरती शवों की तलाश में,

छिपी है झाड़ू में कहीं मृत्यु,

लपलपा रही है इसकी जीभ मृत शरीरों की तलाश में,

मृत्यु की सुई ढूंढ रही है धागा अपने लिए।

मृत्यु लेटी है चारपाई पर,

गद्दे, काली कंवली में लेटी है फैलकर कहीं,

और मारती है फूंक अचानक,

फूल जाती है चादर और चल पड़ते हैं बिस्तर,

तटों की ओर

प्रतीक्षारत  है जहां वह-फौजी वर्दी में।

See: Death Alone- Pablo Neruda


 

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